भक्ती और केवलकी भक्ती


भक्ती और केवलकी भक्ती



आदि सतगुरू,सर्व आत्माओं के सतगुरू,सर्व सृष्टी के सतगुरू,
॥ सतगुरू सुखरामजी महाराजने ॥
धन्य हो,धन्य हो,धन्य हो.

आदि सतगु्रू,सर्व आत्माओं के सतगुरू
सर्व सृष्टी के सतगुरू सतगुरू
सुखरामजी महाराजकी
अंनत हंसो को तारनेवाली
अगम देश की अनभे वाणी
भाषांतर कर्ता :- सतगुरू राधकिसनजी महाराज,(राधाकिसनजी माहेश्वरी )
(ग्राम-हिवरा (लाहे), ता. कारंजा (लाड),जि. अकोला.)
॥ राम रामसा.॥
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आदि सतगुरू,सर्व आत्माओं के सतगुरू,सर्व सृष्टी के सतगुरू,
॥ सतगुरू सुखरामजी महाराजने ॥
धन्य हो,धन्य हो,धन्य हो.
॥सतस्वरुपी रामा।

॥प्रस्तावना॥


यूं जग मोहे न जाणे बांदा, यूं जग मोहे न जाणे ओ।
अगम देश का मै उपदेशी, ये माया रस माने हो॥

आदि सतगुरू सुखरामजी महाराज कहते है, इसतरहसे ये जगत मुझे पहेचानती नही, क्योंकी मै "अगम" (जिसकी किसिको गम नही।) देशका उपदेश करनेवाला है। अगम का मतलब, वो सतस्वरुप का देश, जो कल भी था। आज भी है, और कल भी रहेंगा। ये ऐसा अगम का देश है, जिसकी ब्रम्हा, विष्णू, महेश, शक्ती और पारब्रम्ह इन सबको उसकी वार-पार नही। मै तुम्हे सतस्वरुप पारब्रम्हकी बात कर रहा हूँ। और अगर आप लोग उसे शब्दमे पारब्रम्ह समज रहे, तो फ़िर वो "होणकाल पारब्रम्ह" है। परात्परी परमात्मासे यह दो पद शुरुसे चलते आये है। दोनो पद अमर है। एक "होणकाल पारब्रम्ह" और दुसरा "सतस्वरुप पारब्रम्ह"। होणकाल पारब्रम्ह का मतलब जो जो होनेवाला है, वो तो होयेगाही। इस होणकाल पारब्रम्ह को इस जगतमे सभी लोग जानते है, लेकीन वो सतस्वरुप पारब्रम्ह को यह जगत जानती नही। होणकाल पारब्रम्ह की व्याप्ती तो इस प्रकारकी है। (तीन लोक - स्वर्ग लोक, मृत्यु लोक, पाताल लोक, और १४ भुवन - भुर, भुवर, स्वर, महर, जन, तप, सत, तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, महातल, तीन ब्रम्ह - चिदानंद ब्रम्ह, शिव ब्रम्ह, पारब्रम्ह) और १३ लोक - (महामाया, प्रकृती, ज्योती, अजर, आनंद, वजर, इखर, निरंजन, निराकार, शिवब्रम्ह, महाशुन्य, शुन्यसागर, परब्रम्ह) इसके सिवाय ब्रम्ह का सतलोक, शंकर का कैलास, विष्णू का वैकुंठ, और वैकुंठ के परे शक्ती का देश है। ये सब होणकाल पारब्रम्ह का पसारा है। इसे जगतके लोग जानते है।
सतगुरू सुखरामजी महाराज कह्ते है, वो अगम देश को (सतस्वरुप देश) ये जगत जानते नही। क्योंकी ये जगत "माया रस" (माया का सुख) को मानती है। सतस्वरुप ये वैरागरुप है। ये होणकाल पारब्रम्ह तो मायेसे ओतप्रोत भरा है। और ये जगत तो मायाका "भोगी" है, इसलिए मेरा उपदेश ये समझते नही। अब ये माया कहा तक है, ये सतगुरू सुखरामजी महाराज बताते है,



तीन लोक लग माया हे किची, और शक्त लग भाई।
वहा लग ग्यान कथे सोई काचा, मत मानो जुग माई॥

ये 'माया' तीन लोक और उसके आगे 'शक्ती लोक' तक फ़ैली है। इसेही 'त्रिगुणी माया' कहते है।और ये जगत इसके पीछे पच-पचके मर रहा है। इस माया के सुखमेही दु:ख भरा है। इसलिए ये माया के सुखमे आजतक कोइभी तृप्त नही हुआ। फ़िरभी ये जगत मायाकी भक्ती और निर्गुण ब्रम्ह (होणकाल पारब्रम्ह) भक्तीमे फ़ंसे है। थोडे बहोत ज्ञानी होणकाल पारब्रम्ह तक पहुंचे, लेकीन उनको भी क्या मिला? ये जो पाच इंद्रियोंकी सुखकी चाहना के लिए ये जीव होणकाल पारब्रम्हसे आया है, फ़िर वापीस वही जा के पहुचा, इसका मतलब, पुनरपी जन्मम पुनरपी मरणम, पुनरपी जननी जठ्रे शयनम। ये जगतके लोग कहेते है,सब नदीयाँ (भक्ती) आखीरमे समुदंरमे ही (पारब्रम्ह) मिलती है। लेकिन वहाँसे वापीस आना नही होता क्या? वहाँसे तो ही आना-जाना है। (लक्ष चौर्याएशी योनीमे घुमना है।) जैसे सुरजके तापसे समुदंरके पानीकी वाफ़ होके मेघ बनते है। मेघसे पानी बरसता है। यही पानी नदीसे समुदंरतक आता है। इसतरह ये पारब्रम्हतक पहुचे हुये जीव वापीस इस जगतमे आतेही है। क्योंकी ये सृष्टी तो पारब्रम्हकी खेती है। (जैसे किसान खेती करता है,खेतीको मशागत करता,अनाज बोता है, फ़ंसलकी रक्षा करता है, फ़िर फ़ंसल काटता है।) वो सृष्टीकी रचना करता है। महाप्रलयमे इस जगतको अपनेमे विलीन कर लेता है। तब ये तीन लोक, चवदा भुवन, सुरज, चांद, पांच तत्त्व इन सबका प्रलय हो जाता है। इस समय नरक का 'किडा' से लेकर वैकुंठ्का राजा (विष्णू) तक सब महाप्रलयमे होणकाल पारब्रम्हमे मिल जाते है। फ़िर जब मालिक की इच्छा होती है, तब वापीस वो सृष्टीरचना करता है। फ़िर उस समयमे ये सब जीव अपने अपने कर्म के अनुसार जन्म लेते है। इसलिए फ़िर ऎसे जगह जानेमे क्या मतलब है? और ऎसे जगह (पारब्रम्ह) जाने के लिए वेद, पुराण, शास्र इसमे जो 'करणी' बतायी है, वो करो ,  इस शरीर को कष्ट दो, फ़िर वो ब्रम्हमे (पारब्रम्ह) जा के मिलो। और वहासे लक्ष चौर्याशी योनीमे फ़िर घुमो। आजतक जिसने भी 'करनी' की, वो कहाँ गये? वो मोक्षमे गये क्या? मोक्ष मे जानेकी तो, ये निशानी है, की वो तीन लोकमे दिखते नही। मोख मिलन की आ से नाणी, तीन लोक मे रहे न प्राणी। इसलिए सतगुरू सुखरामजी महाराज कहते है, की उस अगम देश मे चलो। वहा सब 'सतसुख', 'अनंत सुख' अनंत युगोतक बिना कष्टसे मिलते है। इसलिए सतगुरू सुखरामजी महाराज कहते है,



चार जुगमे केवल भक्ती,मे हंस आण जगायारे।
सब हंस लेर मिलुंगा गुरूसु,आणंदपद मे भायारे॥

मै चार जुगमे आया और अनंत कोटी हंस(जीव) को वो देशमे लेके गया। अब इस कलजुगमे,



कलजुग माय कबीर नामदेव, दादू दरिया सोई।
वा परताप बहोत ने पायो,कहा लग कहु मै तोई॥

आदि सतगुरू सुखरामजी महाराज कहते है,
इस कलजुगमे संत कबीरजी, संत नामदेवजी, संत दादुजी, संत दर्यावजी, संत राकाजी,
संत पीपाजी, संत प्रेमदासजी, संत संतदासजी, संत नानकजी और ऎसे कही संत परमपदमे गये है। और ये सब संतोने वेद, पुराण मे बतायी 'करनी' धारण नही की।
आदि सतगुरू सुखरामजी महाराज कहते है,
जे आ मुगत बेद पढ होवे,ब्रम्हा ध्यान धरे क्या जोवे।
अगर वेद मे मुक्ती होती, तो ब्रम्हा किसका ध्यान धरके बैठा है? विष्णू किसका ध्यान कर रहा है? शंकर किसका जाप कर रहा है? इसलिए ऎसा 'कैवल्य राम' का सब जाप करो।
आदि सतगुरू सुखरामजी महाराज कहते है,


भरमावण कु से कुल जुग हे,समझावे जन बिरला।
छुछुम बेद के भेद बिनारे,सबमाया का किरला॥
माया और ब्रम्ह का भेद विरला संतही बताता है। वो दुधका दुध और पानीका पानी अलग करके बताता है। ये जगत तो भ्रमके लियेही है। वेद शास्र, पुराणमे बतायी करणी करो और कर्म बांधो।
फ़िर कर्म भोगनेके लिये लक्ष चौर्याशी योनीमे आवो। ये सब ताप (आधि, व्याधि, उपाधि/संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म, क्रियमाण कर्म) अगर मिटाना चाहते हो,
तो वो 'बावन्न अक्षर' के आधारसे मिटनेवाला और कटनेवाला भी नही।
क्योंकी परमात्मा तो बावन्न अक्षरतीत नही है। वो तो ने:अक्ष्रर है। अक्षरातीत है।
वही परमात्मके निजनाम है। ऎसे वो ने:अक्षर निजनामके 'निजमन' देके स्मरण करनेसे परमात्माका 'निजनाम' प्रकट होता है। और वो 'बंकनालसे पुरबके छ: कमल (कंठ, ह्रुदय, मध्य, नाभी, लिंग, गुदा) और पश्चिमके छ: कमल (बंकनाल, मेरुस्थान, त्रिगुटी, चिदानंद, शिवब्रम्ह, पारब्रम्ह) ऎसे बाराह कमल के
छेदन करके दसवे द्वारसे बाहर इस हंस (जीव) को साथमे लेकर अखंड हो जाता है।
इसीको आदि सतगुरू सुखरामजी महाराज 'कुद्र्तकला' कहते है।



के सुखराम समझरे प्राणी,सत्त कला ज्यां जागे।
अखंड घट मे हुवो उजियाला,नखचख मे धुन लागे॥
कुद्रत कला नाम इस ही को,कोइ जन जाणे नाही।
करणी बिना क्रिया बिन साजन,उलट आद घर जाही॥
नखचख माय अखंड धुन लागे,निमिष न खंडे कोई।
मुख सु कह्या रित नही आवे,वा कुद्रत सुण होई॥


आदि सतगुरू सुखरामजी महाराज कहते है कि, यही वो परमपद्की भक्ती है। इस जगतमे तीन प्रकारकी भक्ती है, एक सगुणकी, दुसरी निर्गुणकी और तिसरी आनंदपद की (सतस्वरुपकी)। सगुण, निर्गुण को ये जगत जानती है, लेकिन आनंद पद की भक्तीको नही जानती।


आनंद पद की भक्त बताऊ,प्रथम तो मत आवे।
ज्ञान ध्यान हद का गुरू सारा,सो सबही छिट्कावे॥
जब हंस ये भक्ती धारण करता है, तब उसकी मती ऎसी होती है, की वो 'हद्द्के' गुरू का ज्ञान और ध्यान सब छोड देता है।


सतगुरू शरण ढुढ ले जाई,ज्या नाव कला घट जागे।
राजयोग वो कहिये भाई,बिन करणी धुन लागे॥

इसीको आदि सतगुरू सुखरामजी महाराज 'राजयोग' कहते है। यही अस्सल राजयोग है।
आदि सतगुरूके अधिकारसे कौनसी भी करनी न करते हुये 'अखंड ध्वनी' लग जाती।

इसलिए आदि सतगुरू सुखरामजी महाराज कहते है,






मै यो रतन धर्यो है बारे,सुण लिज्यो नर नारी।
के सुखराम काज जीवा की,तो मानो बात हमारी॥


बार बार आ सत्ता न आवे,हंसतारण जुगमाही।
पिछे धरम सकल सोई धरडा,तामे कारज नाही॥


आदि सतगुरू सुखरामजी महाराज कहते है, ये हंस तारनेकी सत्ता बारबार नही आती, ये कब निकल जायेंगी, ये बात बताई नही जा सकती।


रामरामसा।
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भक्ती का भेद
                 अंदरका और बाहरका श्वासमे सत्स्वरुपी "राम" नामका सुमिरण करना।


   || राम राम सा ||